डॉ. पुरुषोत्तम मीणा 'निरंकुश'
आरक्षित वर्ग के मुश्किल से पाँच प्रतिशत अफसरों को अपने वर्ग के नीचे के स्तर के कर्मचारियों तथा अपने वर्ग के आम लोगों के प्रति सहानुभूति होती होती है। शेष अफसर उच्च जाति के अफसरों की तुलना में अपने वर्ग के प्रति विद्वेषी होते हैं और अपने वर्ग से दूरी बनाकर रखते हैं।
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सुप्रसिद्ध साहित्यकार, साहित्य अकादेमी, दिल्ली के सदस्य एवं रायपुर (छत्तीसगढ) से निकलने वाली साहित्यिक पत्रिका सद्भावना दर्पण के सम्पादक श्री गिरीश पंकज जी ने अपने एक लेख-अनुसूचित जन जातियों को मुख्यधारा में लाने का सवा-में लिखा है कि-
".........आदिवासियों की कुशलता बढाने कि कोशिश करने की बजाय हमारी कोशिश यह रहती है कि वे जैसे है, वैसे ही रहने दें, आरक्षण के कारण बहुत से वनवासी भाई आज पढ-लिख कर अफसर भी बन गए है, इसलिए हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि जितने आदिवासी अफसर, कर्मचारी है, उन्हें आदिवासी क्षेत्रों में ही पदस्थ करना चाहिए। ऐसा होने पर वे वनवासियों की भावनाओं को अच्छे से समझ सकेंगे। अभी शहरी लोग जाते हैं, तो उनकी मानसिकता रहती है लूटो-खाओ और चल दो............."
श्री गिरीज का उक्त सुझाव, उनकी ओर से ठीक हो सकता है, लेकिन अनुसूचित जन जातियों के पढे-लिखे एवं नौकरी कर रहे लोगों के बारे में शायद उनको सही जानकारी नहीं है। क्योंकि सच्चाई ठीक विपरीत है। आजादी के बाद जनजातियों को जनजाति वर्ग के अफसरों ने जमकर नुकसान पहुँचाया है। इसलिये इन वर्गों के लोगों को इनके इलाकों में पदस्थ करने मात्र से, लगता नहीं कि कुछ हासिल होगा। बल्कि इनके वर्ग के लोगों को अपने इलाकों में पदस्थ करने की बात करने के साथ-साथ हमें संविधान के प्रावधानों को भी लागू करने के बारे में आवाज उठानी होगी। जिसके बारे में, मैं अनेक बार लिख चुका हूँ और अजा एवं अजजा वर्ग के उच्चाधिकारियों के कोप का भी शिकार भी हुआ हूँ, इसके बावजूद अभी भी मेरा स्पष्ट मत है कि संविधान की भावना को ध्यान में रखते हुए, संविधान के प्रावधानों को लागू किया जाना चाहिये। इस बारे में संवैधानिक स्थिति को आम पाठक के लिये
आसानी से समझाने के लिये थोडा विस्तार से लिखना मेरी विवशता है या विषय की मांग है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि संविधान के भाग तीन अनुच्छेद-14, 15 एवं 16 में साफ तौर पर कहा गया है कि
"धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किया जाने वाला विभेद असंवैधानिक होगा।"
इस प्रावधान के होते हुए अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि-
इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य (जिसे आम पाठकों की समझ के लिये केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकार एवं सरकारों के निकाय कह सकते हैं, क्योंकि हमारे यहाँ पर प्रान्तों को भी राज्य कहा गया है।) को पिछडे हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं (रोकेगी नहीं) करेगी।
उक्त प्रावधान में पिछडे लोगों के सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व पर जोर दिया गया है। संविधान निर्माताओं का इसके पीछे मूल ध्येय यही रहा था कि सरकारी सेवओं में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो ताकि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय नहीं हो या सकारात्मक रूप से कहें तो सबके साथ समान रूप से न्याय हो सके। इसी बात को अमलीजामा पहनाने के लिये उक्त उप अनुच्छेद (4) जोडकर अजा, अजजा एवं अन्य पिछडा वर्ग के लोगों को नौकरियों में कम अंक प्राप्त करने पर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी प्रदान की जाती रही हैं।
इसी संवैधानिक प्रावधान के कारण 70 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों को नौकरी नहीं मिलती, जबकि आरक्षित वर्ग में न्यूनतम निर्धारित अंक पाने वाले प्रत्याशी को 40 या 50 प्रतिशत अंकों पर नौकरी मिल जाती है। जिसके चलते अनेक लोगों में भारी क्षोभ तथा गुस्सा भी देखा जा सकता है। इसके बावजूद भी मेरा मानना है कि पूर्वाग्रही एवं अल्पज्ञानी लोगों को छोड दें तो उक्त प्रावधानों पर किसी भी निष्पक्ष, आजादी के पूर्व के घटनाक्रम का ज्ञान रखने वाले तथा एवं संविधान के जानकार व्यक्ति कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इस प्रावधान में सरकारी सेवाओं में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व स्थापित करने का न्यायसंगत प्रयास करने का पवित्र उद्देश्य समाहित है। परन्तु समस्या इस प्रावधान के अधूरेपन के कारण है।
मेरा विनम्र मत है कि उक्त प्रावधान पिछडे वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिये निर्धारित योग्यताओं में छूट प्रदान करने सहित, विशेष उपबन्ध करने की वकालत तो करता है, लेकिन इन वर्गों का सही, संवेदनशील, अपने वर्ग के प्रति पूर्ण समर्पित एवं सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने पर पूरी तरह से मौन है। इस अनुच्छेद में या संविधान के अन्य किसी भी अनुच्छेद में कहीं भी इस बात की चर्चा तक नहीं की गयी है कि तुलनात्मक रूप से कम योग्य होकर भी अजा, अजजा एवं अ.पि.वर्ग में नौकरी पाने वाले ऐसे निष्ठुर, बेईमान और असंवेदनशील लोगों को सरकारी सेवा में क्यों बने रहना चाहिये, जो नौकरी पाने के बाद अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने आपको अपने वर्ग का ही नहीं मानते?
मैं अजा एवं अजजा संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ (जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. उदित राज हैं और इण्डियन जस्टिस पार्टी के भी अध्यक्ष है।) का राष्ट्रीय महासचिव रहा हूँ। अखिल भारतीय भील-मीणा संघर्ष मोर्चा का म. प्र. का प्रदेश अध्यक्ष रहा हूँ। ऑल इण्डिया एसी एण्ड एसटी रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन में रतलाम मण्डल का कार्यकारी मण्डल अध्यक्ष रहा हँू। अखिल भारतीय आदिवासी चेतना परिषद का परामर्शदाता रहा हूँ। वर्तमान में ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ। इसके अलावा अजा, अजजा एवं अपिव के अनेक संगठनों और मंचों से भी सम्बद्ध रहा हूँ।
इस दौरान मुझे हर कदम पर बार-बार यह अनुभव हुआ है कि आरक्षित वर्ग के मुश्किल से पाँच प्रतिशत अफसरों को अपने वर्ग के नीचे के स्तर के कर्मचारियों तथा अपने वर्ग के आम लोगों के प्रति सहानुभूति होती होती है। शेष अफसर उच्च जाति के अफसरों की तुलना में अपने वर्ग के प्रति विद्वेषी होते हैं और अपने वर्ग से दूरी बनाकर रखते हैं।
इस बारे में, मैं कुछ बातें स्पष्ट कर रहा हँू-अजा एवं अजजा के अधिकतर अफसर अपने मूल गाँव/निवास को छोडकर सपरिवार सुविधासम्पन्न शहर में बस जाते हैं। गाँवों में पोस्टिंग होने से बचने के लिये रिश्वत तक देते हैं और हर कीमत पर शहरों में जमें रहते हैं। अनेक अपनी जाति या वर्ग की पत्नी को त्याग देते हैं (तलाक नहीं देते) और अन्य उच्च जाति की हाई-फाई लडकी से गैर-कानूनी तरीके से विवाह रचा लेते हैं। कार, एसी, बंगला, फार्म हाऊस, हवाई यात्रा आदि साधन जुटाना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाते हैं। ऐसे लोग उक्त आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवा में संविधान की भावना के अनुसार प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने वर्ग एवं अपने वर्ग के लोगों से दूरी बना लेते हैं और पूरी तरह से राजशाही का जीवन जीने के आदी हो जाते हैं।
इस प्रकार के असंवेदनशील और वर्गद्रोही लोगों द्वारा अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने पर भी, इनका सरकारी सेवा में बने रहना हर प्रकार से असंवैधानिक और गैर-कानूनी तो है ही, साथ ही संविधान के ही प्रकाश में पूरी तरह से अलोकतान्त्रिक भी है। क्योंकि उक्त उप अनुच्छेद (4) में ऐसे लोगों को तुलनात्मक रूप से कम योग्य होने पर भी अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के एक मात्र उद्देश्य से ही इन्हें सरकारी सेवा में अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करके, अपने वर्ग से विश्वासघात करने वालों को सरकारी सेवा में बने रहने का कोई कानूनी या नैतिक औचित्य नहीं रह जाता है। इस माने में संविधान का उक्त उप अनुच्छेद अधूरा है।
मेरा मानना है कि यदि इसमें प्रारम्भ से ही कहा गया होता कि ऐसे लोगों को तब तक ही सेवा में बने रहने का हक होगा, जब तक कि वे अपने वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, तो मैं समझता हँू कि हर एक आरक्षित वर्ग का अफसर अपने वर्ग के प्रति हर तरह से संवेदनशील होता। अतः अब हर एक मंच से इस प्रावधान में उक्त बात जोडने की मांग उठनी चाहिये। अन्यथा आरक्षण के आधार पर कम योग्य लोगों को नौकरी देकर राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने का कोई कारण नहीं है। उक्त विवचन के प्रकाश में श्री गिरीश जी की सलाह का दूसरा पहलु पाठको की समझ में आ जाना चाहिये और इस बारे में गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। विशेषकर इसलिये क्योंकि नक्सलवादी आदिवासियों को अपने गिरोह में शामिल करके देश एवं मानवता के लिये बहुत बडा खतरा बन गये हैं।
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लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 4320 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे के बीच)।
".........आदिवासियों की कुशलता बढाने कि कोशिश करने की बजाय हमारी कोशिश यह रहती है कि वे जैसे है, वैसे ही रहने दें, आरक्षण के कारण बहुत से वनवासी भाई आज पढ-लिख कर अफसर भी बन गए है, इसलिए हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि जितने आदिवासी अफसर, कर्मचारी है, उन्हें आदिवासी क्षेत्रों में ही पदस्थ करना चाहिए। ऐसा होने पर वे वनवासियों की भावनाओं को अच्छे से समझ सकेंगे। अभी शहरी लोग जाते हैं, तो उनकी मानसिकता रहती है लूटो-खाओ और चल दो............."
श्री गिरीज का उक्त सुझाव, उनकी ओर से ठीक हो सकता है, लेकिन अनुसूचित जन जातियों के पढे-लिखे एवं नौकरी कर रहे लोगों के बारे में शायद उनको सही जानकारी नहीं है। क्योंकि सच्चाई ठीक विपरीत है। आजादी के बाद जनजातियों को जनजाति वर्ग के अफसरों ने जमकर नुकसान पहुँचाया है। इसलिये इन वर्गों के लोगों को इनके इलाकों में पदस्थ करने मात्र से, लगता नहीं कि कुछ हासिल होगा। बल्कि इनके वर्ग के लोगों को अपने इलाकों में पदस्थ करने की बात करने के साथ-साथ हमें संविधान के प्रावधानों को भी लागू करने के बारे में आवाज उठानी होगी। जिसके बारे में, मैं अनेक बार लिख चुका हूँ और अजा एवं अजजा वर्ग के उच्चाधिकारियों के कोप का भी शिकार भी हुआ हूँ, इसके बावजूद अभी भी मेरा स्पष्ट मत है कि संविधान की भावना को ध्यान में रखते हुए, संविधान के प्रावधानों को लागू किया जाना चाहिये। इस बारे में संवैधानिक स्थिति को आम पाठक के लिये
आसानी से समझाने के लिये थोडा विस्तार से लिखना मेरी विवशता है या विषय की मांग है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि संविधान के भाग तीन अनुच्छेद-14, 15 एवं 16 में साफ तौर पर कहा गया है कि
"धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर किसी भी नागरिक के साथ किया जाने वाला विभेद असंवैधानिक होगा।"
इस प्रावधान के होते हुए अनुच्छेद 16 (4) में कहा गया है कि-
इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य (जिसे आम पाठकों की समझ के लिये केन्द्रीय एवं प्रान्तीय सरकार एवं सरकारों के निकाय कह सकते हैं, क्योंकि हमारे यहाँ पर प्रान्तों को भी राज्य कहा गया है।) को पिछडे हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, नियुक्तियों में या पदों के आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं (रोकेगी नहीं) करेगी।
उक्त प्रावधान में पिछडे लोगों के सरकारी सेवाओं में प्रतिनिधित्व पर जोर दिया गया है। संविधान निर्माताओं का इसके पीछे मूल ध्येय यही रहा था कि सरकारी सेवओं में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व हो ताकि किसी भी वर्ग के साथ अन्याय नहीं हो या सकारात्मक रूप से कहें तो सबके साथ समान रूप से न्याय हो सके। इसी बात को अमलीजामा पहनाने के लिये उक्त उप अनुच्छेद (4) जोडकर अजा, अजजा एवं अन्य पिछडा वर्ग के लोगों को नौकरियों में कम अंक प्राप्त करने पर भी आरक्षण के आधार पर नौकरी प्रदान की जाती रही हैं।
इसी संवैधानिक प्रावधान के कारण 70 प्रतिशत से अधिक अंक पाने वाले सामान्य वर्ग के प्रत्याशियों को नौकरी नहीं मिलती, जबकि आरक्षित वर्ग में न्यूनतम निर्धारित अंक पाने वाले प्रत्याशी को 40 या 50 प्रतिशत अंकों पर नौकरी मिल जाती है। जिसके चलते अनेक लोगों में भारी क्षोभ तथा गुस्सा भी देखा जा सकता है। इसके बावजूद भी मेरा मानना है कि पूर्वाग्रही एवं अल्पज्ञानी लोगों को छोड दें तो उक्त प्रावधानों पर किसी भी निष्पक्ष, आजादी के पूर्व के घटनाक्रम का ज्ञान रखने वाले तथा एवं संविधान के जानकार व्यक्ति कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि इस प्रावधान में सरकारी सेवाओं में हर वर्ग का प्रतिनिधित्व स्थापित करने का न्यायसंगत प्रयास करने का पवित्र उद्देश्य समाहित है। परन्तु समस्या इस प्रावधान के अधूरेपन के कारण है।
मेरा विनम्र मत है कि उक्त प्रावधान पिछडे वर्ग के लोगों को प्रतिनिधित्व देने के लिये निर्धारित योग्यताओं में छूट प्रदान करने सहित, विशेष उपबन्ध करने की वकालत तो करता है, लेकिन इन वर्गों का सही, संवेदनशील, अपने वर्ग के प्रति पूर्ण समर्पित एवं सशक्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने पर पूरी तरह से मौन है। इस अनुच्छेद में या संविधान के अन्य किसी भी अनुच्छेद में कहीं भी इस बात की चर्चा तक नहीं की गयी है कि तुलनात्मक रूप से कम योग्य होकर भी अजा, अजजा एवं अ.पि.वर्ग में नौकरी पाने वाले ऐसे निष्ठुर, बेईमान और असंवेदनशील लोगों को सरकारी सेवा में क्यों बने रहना चाहिये, जो नौकरी पाने के बाद अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने आपको अपने वर्ग का ही नहीं मानते?
मैं अजा एवं अजजा संगठनों के अखिल भारतीय परिसंघ (जिसके राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. उदित राज हैं और इण्डियन जस्टिस पार्टी के भी अध्यक्ष है।) का राष्ट्रीय महासचिव रहा हूँ। अखिल भारतीय भील-मीणा संघर्ष मोर्चा का म. प्र. का प्रदेश अध्यक्ष रहा हूँ। ऑल इण्डिया एसी एण्ड एसटी रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन में रतलाम मण्डल का कार्यकारी मण्डल अध्यक्ष रहा हँू। अखिल भारतीय आदिवासी चेतना परिषद का परामर्शदाता रहा हूँ। वर्तमान में ऑल इण्डिया ट्राईबल रेलवे एम्पलाईज एसोसिएशन का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूँ। इसके अलावा अजा, अजजा एवं अपिव के अनेक संगठनों और मंचों से भी सम्बद्ध रहा हूँ।
इस दौरान मुझे हर कदम पर बार-बार यह अनुभव हुआ है कि आरक्षित वर्ग के मुश्किल से पाँच प्रतिशत अफसरों को अपने वर्ग के नीचे के स्तर के कर्मचारियों तथा अपने वर्ग के आम लोगों के प्रति सहानुभूति होती होती है। शेष अफसर उच्च जाति के अफसरों की तुलना में अपने वर्ग के प्रति विद्वेषी होते हैं और अपने वर्ग से दूरी बनाकर रखते हैं।
इस बारे में, मैं कुछ बातें स्पष्ट कर रहा हँू-अजा एवं अजजा के अधिकतर अफसर अपने मूल गाँव/निवास को छोडकर सपरिवार सुविधासम्पन्न शहर में बस जाते हैं। गाँवों में पोस्टिंग होने से बचने के लिये रिश्वत तक देते हैं और हर कीमत पर शहरों में जमें रहते हैं। अनेक अपनी जाति या वर्ग की पत्नी को त्याग देते हैं (तलाक नहीं देते) और अन्य उच्च जाति की हाई-फाई लडकी से गैर-कानूनी तरीके से विवाह रचा लेते हैं। कार, एसी, बंगला, फार्म हाऊस, हवाई यात्रा आदि साधन जुटाना इनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाते हैं। ऐसे लोग उक्त आरक्षित वर्गों का सरकारी सेवा में संविधान की भावना के अनुसार प्रतिनिधित्व करना तो दूर अपने वर्ग एवं अपने वर्ग के लोगों से दूरी बना लेते हैं और पूरी तरह से राजशाही का जीवन जीने के आदी हो जाते हैं।
इस प्रकार के असंवेदनशील और वर्गद्रोही लोगों द्वारा अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करने पर भी, इनका सरकारी सेवा में बने रहना हर प्रकार से असंवैधानिक और गैर-कानूनी तो है ही, साथ ही संविधान के ही प्रकाश में पूरी तरह से अलोकतान्त्रिक भी है। क्योंकि उक्त उप अनुच्छेद (4) में ऐसे लोगों को तुलनात्मक रूप से कम योग्य होने पर भी अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व करने के एक मात्र उद्देश्य से ही इन्हें सरकारी सेवा में अवसर प्रदान किया जाता है। ऐसे में अपने वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करके, अपने वर्ग से विश्वासघात करने वालों को सरकारी सेवा में बने रहने का कोई कानूनी या नैतिक औचित्य नहीं रह जाता है। इस माने में संविधान का उक्त उप अनुच्छेद अधूरा है।
मेरा मानना है कि यदि इसमें प्रारम्भ से ही कहा गया होता कि ऐसे लोगों को तब तक ही सेवा में बने रहने का हक होगा, जब तक कि वे अपने वर्ग का ईमानदारी से प्रतिनिधित्व करते रहेंगे, तो मैं समझता हँू कि हर एक आरक्षित वर्ग का अफसर अपने वर्ग के प्रति हर तरह से संवेदनशील होता। अतः अब हर एक मंच से इस प्रावधान में उक्त बात जोडने की मांग उठनी चाहिये। अन्यथा आरक्षण के आधार पर कम योग्य लोगों को नौकरी देकर राष्ट्र के विकास को अवरुद्ध करने का कोई कारण नहीं है। उक्त विवचन के प्रकाश में श्री गिरीश जी की सलाह का दूसरा पहलु पाठको की समझ में आ जाना चाहिये और इस बारे में गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है। विशेषकर इसलिये क्योंकि नक्सलवादी आदिवासियों को अपने गिरोह में शामिल करके देश एवं मानवता के लिये बहुत बडा खतरा बन गये हैं।
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लेखक जयपुर से प्रकाशित पाक्षिक समाचार-पत्र प्रेसपालिका के सम्पादक, होम्योपैथ चिकित्सक, मानव व्यवहारशास्त्री, दाम्पत्य विवादों के सलाहकार, विविन्न विषयों के लेखक, कवि, शायर, चिन्तक, शोधार्थी, तनाव मुक्त जीवन, लोगों से काम लेने की कला, सकारात्मक जीवन पद्धति आदि विषयों के व्याख्याता तथा समाज एवं प्रशासन में व्याप्त नाइंसाफी, भेदभाव, शोषण, भ्रष्टाचार, अत्याचार और गैर-बराबरी आदि के विरुद्ध राष्ट्रीय स्तर पर संचालित संगठन-भ्रष्टाचार एवं अत्याचार अन्वेषण संस्थान (बास) के मुख्य संस्थापक एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष भी हैं। जिसमें 4320 रजिस्टर्ड आजीवन कार्यकर्ता देश के 17 राज्यों में सेवारत हैं। फोन नं. 0141-2222225 (सायं 7 से 8 बजे के बीच)।
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